प्रोफेसर दीनबन्धु पाण्डेय
लेखन परमपरा की शुरूआत अशोक कालीन ब्राह्मी लिपि से मानी जाती है। उसके पहले हड़प्पा और सिन्धु घाटी सभ्यता में कुछ सांकेतिक चिन्ह अवश्य देखे जाते हैं पर उसे शब्द रूप में आबद्ध नहीं किया जा सकता।
अशोक महान के समय में ब्राह्मी लिपि की लेखन परम्परा समृद्ध हो चुकी थी जो अशोक के द्वारा पत्थर पर लिखवाये गये धार्मिक सन्देशों में देखा जाता है। इन अभिलेखों की लेखन कला और उसकी सुन्दरता मंत्रमुग्ध कर देती है। किसी भी संरचना का चिरस्थाई होना उसके गुणों में एक है। शिलाभिलेखों के निर्माण में चिरस्थाई होने के लिये चिलिथितिक्या, चिरठिकित, चिरथिकित, चिलंथिकिता आदि पाली शब्दों का प्रयोग बारम्बार किया गया है जो आज भी चिरस्थाई है।
उन अभिलेखों को शिला फलक या स्तम्भ पर लिखवाया गया जो अमीट और अक्षुण हो गये। अशोक के अभिलखों में भित्तिका और शाला का सन्दर्भ देखा जाता है जो वास्तु रचना दृष्टि की महत्वपूर्ण हैं और जिसे बौद्ध भिक्षुओं के लिये जगह-जगह पर बनवाया गया।
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बौद्ध संस्कृत परम्परा के अनुसार समुद्र नामक भिक्षु से धर्म के 84,000 अँग की जानकारी प्राप्त होने पर अशोक ने बुद्ध के शरीर के धर्मावशेषों पर उतनी हीं संख्या में स्तूप बनवाने की सोचा और दस धर्म स्तूपों के गर्भ से धर्म रज लेकर देश विदेश के विभिन्न स्थानों पर 84,000 स्तूपों का निर्माण कराया।
शिलाभिलेखों पर कूप और मग (पथ) शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। राजभवन के विभिन्न भाग पाकशाला (महानस), अवरोधन (ओरोधन) या अन्तःपुर, (गाभागार) शयनगृह, उद्यान (उयान), आराम (आलम), आम्रवाटिका (अंबावाडिका) दानग्रह तथा विश्रामगृह के उल्लेख भी मिलते हैं।
चतुर्थ शिला अभिलेख में 'रूप' शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। 'दिवियानि लूपानि तथा दिवनी रूपानि' का अर्थ कलाकारों द्वारा रचित विमान, हस्ति एवं अग्निस्कन्ध को कहा जाता था। लुभावने स्वरूप के लिये प्रिय शब्द का प्रयोग तो अशोक की उपाधि प्रियदसि (प्रियदर्शी) से ही स्पष्ट है।
बराबर के कर्णचौपार गुहा अभिलेख में बर्षा ऋतु के सन्दर्भ को लेते हुये पर्वत को सुपिय (सुप्रिय) कहा जाना मनोहर वातावरण का संकेत देता है।
अशोक के अभिलेखों में जौगड़ एवं बराबर के विश्व झोपड़ी गुहा अभिलेख में स्वस्तिक, मत्स्य, खड्ग, आदि मंगल चिन्ह देखने को मिलते हैं।
रेनु पाण्डेय
संपादक
स्थापत्यम् जर्नल